1. ऋण हो, ऐसा खर्च मत करो। 2. पाप हो, ऐसा कमाई मत करो। 3. क्लेश हो, ऐसा मत बोलो। 4. चिन्ता हो, ऐसा काम मत करो। 5. रोग हो, ऐसा मत खाओ।
पेड़ लगाए हर इन्सान, माँ वसंधुरा देती वरदान।वृक्ष फैलाते हें हरियाली, जीवन में लाते खुशहाली।जहां हरियाली है, वहीं खुशहाली है।धरती पर स्वर्ग हे वहाँ, हरे भरे वृक्ष हे जहाँ।वृक्ष काट तुम मत करो अभिमान, रोती धरती तुम को देगी अभिशाप।प
एक युवक बड़ा परिश्रमी था। दिन भर काम करता, शाम को जो मिलताखा-पीकर चैन की नींद सो जाता। कुछ संयोग ऐसा हुआ कि उसकी लाॅटरी लग गई। ढ़ेरो धन उसे अनायास मिल गया। अब उसका सारा समय भोग विलास में बीतने लगा। वासना की तृप्ति हेतु निरत होने से श्रम के अभाव में वह दुर्बल होता चला गया। चिन्ता और दुगनी हो गई। नीं
ध्यान के अनुभव निराले हैं। जब मन मरता है तो वह खुद को बचाने के लिए पूरे प्रयास करता है। जब विचार बंद होने लगते हैं तो मस्तिष्क ढेर सारे विचारों को प्रस्तुत करने लगता है। जो लोग ध्यान के साथ सतत् ईमानदारी से रहते हैं वह मन और मस्तिष्क के बहकावे में नहीं आते हैं लेकिन जो बहकावे में आ जाते हैं वह कभ
महर्षि उद्दालक के पुत्र श्वेतकेतु ने बारह वर्ष गुरुकुल में रहकर वेद शास्त्रों का अध्ययन किया। जब वह घर लौटा तो उसे यह मिथ्य अभिमान हो गया कि वह अपने पिता से भी बड़ा ज्ञानी है। इसी मिथ्या अभिमान के कारण उसने परंपरा के अनुसार अपने पिता को प्रणाम तक नहीं किया। महर्षि उद्दालक समझ गए कि पुत्र को अभिमा
देवता शिष्ट-मनुष्य गुरु और ज्ञानी जनों का सम्मान, पवित्रता, सरलता, ब्रह्मचर्य और अहिंसा-इसको शरीर का तप कहते है। दूसरों केा उद्विग्न न करने वाले सत्य प्रिय, हित वाक्य को कहना, आत्मा को ऊंचा उठाने वाले ग्रंथो का स्वाध्याय करना-इसको वाणी का तप कहते है। मन को प्रसन्न रखना, शांतभाव, कम
मैत्री मैत्री गुणवत्ता है न कि संबंध। इसका किसी दूसरे से कोई लेना-देना नहीं है। मौलिक रूप से यह तुम्हारी आंतरिक, योग्यता है। मैत्री एक तरह की खुशबू है। जंगल में फूल खिलता है, कोई भी नहीं गुजरता... तब भी वह खुशबू बिखेरता है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कोई जानता है
जैसे पानी को कपड़े से छानकर पीते हैं, वैसे ही शब्द को सत्य से छानकर बोलो।जैसे कीड़ा वस्त्रों को, वैसे ही ईष्र्या मनुष्य को नष्ट कर देती है।जैसे हम द्वेष से जगत को नरक सदृश्य बना देते है, ऐसे ही उसे प्रेम से स्वर्ग के समान भी बना सकते
मूर्खों से बहस करके कोई भी व्यक्ति नहीं कहला सकता मूर्ख पर विजय पाने का एक मात्र उपाय यही है कि उसकी ओर ध्यान नहीं दिया जाए - संत ज्ञानेश्वर
इंसान का मस्तिष्क जो सोच सकता है और जिसमें यकीन कर सकता है उसे वह हासिल कर सकता है।मस्तिष्क की कोई सीमाएँ नहीं हैं, सिवाय उनके जिन्हें हम मान लेते हैं। गरीबी और अमीरी दोनों ही विचार की संताने हैं।“जीवन के युद्ध में हमेशा वही नहीं जीतता